Wednesday 30 November 2011

तुमसे मिलकर ...

तुमसे मिलकर ...
जुबां खामोश थी,
मन फिर भी तुमसे
बहुत कुछ बोल रहा था

ए कैसा मंजर था,
मैं हर तरफ तुम्हें
ही देख रहा था।



ना जाने कितने शिकवे थे,
ना जाने कितने अरमां थे
सामने जब तुम मिले,
बरफ के मानिंद मैं तो,
बस पिघल रहा था।



तुमसे मिलकर हुआ,
तन-मन इतना हल्का,
कि मैं बादलों के संग,
उड़ रहा था
उस दिन फिजां में ना जाने,
ये कैसा नशा था।



ऐ रहबर थोड़ी सी,
तो मोहलत दे देता
मैं इन मृगनयनी आंखों में,
थोड़ी देर के लिये उतर जाता।



विरह के इस मरूस्थल में,
भटका हुआ,
बरसों से प्यासा था.

ये मन 
वो आये पल भर में
और मुस्कुरा के चल दिये

अटल कैसे कहे कि
मेरी जिंदगी, मै
तुमसे थोड़ा और रूबरू
होना चाह रहा था......!

15 comments:

  1. बेहतरीन आपने बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया है।

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  2. बहुत बढ़िया सर!

    सादर

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  3. waah...bahut khub...dil se likhi gayi lekhni

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  4. उनका असर ही कुछ ऐसा है ... हर कोई उनकी धूप से पिधाल उठता है ... अच्छी रचना है ...

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की जायेगी! आपके ब्लॉग पर अधिक से अधिक पाठक पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  6. बहुत उत्तम प्रस्तुति

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  7. ..... प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  8. ना जाने कितने शिकवे थे,
    ना जाने कितने अरमां थे
    सामने जब तुम मिले,
    बरफ के मानिंद मैं तो,
    बस पिघल रहा था।
    Wah! Bahut khoob!

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  9. bahut khoob hari ji...

    kabhi hamare blog pe bhi aaiye...

    http://mymaahi.blogspot.com

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